आज 'रामनवमी' के पावन अवसर पर आप सब के समक्ष मेरे शब्दों में रामायण की कथा पेश करने की कोशिश कर रहीं हूं।
कथा है यह पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की|
जहां वसा रघुकुल ऐसे पवित्र अयोध्या धाम की।
अयोध्यानरेश दशरथ संग सारी प्रजा के मन में था दुख|
सब व्याकुल थे देखने को रघुकुल के चिराग का मुख||
पुत्र प्राप्ति के लिए राजा दशरथ ने यज्ञ किया|
प्रसन्न होकर अग्निदेव ने 'पायस' रूपी आशीर्वाद दिया||
तीनों रानियों ने किया पायस का श्रद्धापूर्वक सेवन|
नव मास में जन्में वहां चार राजकुमार मनभावन||
राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न रखें बालकों के नाम|
प्रसन्न और प्रफुल्लित था उस दिन संपूर्ण अयोध्या धाम||
खेल खेल में एक दिन प्रभु राम ने मांग लिया चंद्रमा|
बाल राम की इच्छा पूर्ण करने पानी में प्रतिबिंबित किया आसमां||
जब चारों भाई वापस आएं लेकर गुरु वशिष्ठ से शिक्षा|
विश्वामित्र आएं राम को लेजाने करने हवन की रक्षा||
विश्वामित्र संग चल पड़े राम और लखन भाई|
राक्षसी ताडिका की तब अंतिम घड़ी थी आई||
ताडिका के वध से समस्त ऋषिमुनियों को हुआ हर्ष|
देवी अहिल्या की भी श्राप से मुक्ति हुई जब शीला को किया प्रभु ने स्पर्श||
सफ़र करते करते प्रभु पहुंच गए मिथिला नगरी|
जहां अपने स्वयंवर में माला लेकर खड़ी थी जनकदुलारी||
स्वयंवर में प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए रखा था शिव का धनुष|
प्रत्यंचा तो दूर पर उसे उठा भी ना पाया वहां मौजूद एक भी पुरुष||
फिर श्रीराम आएं आगे अपने गुरु की आज्ञा मानकर|
श्रीराम ने नमन करते हुए प्रत्यंचा चढ़ाई शिव धनुष पर||
धनुष के टूटने की गूंज सुनकर क्रोध में अयोध्या पहुंचे परशुराम|
क्रोध में लाल होकर पूंछा उन्होंने धनुष तोड़नेवाले का नाम||
पता चल गया परशुराम को की शिव धनुष को राम ने तोड़ा|
पर प्रभु की असली पहचान होते ही उन्होंने प्रभु के सामने हाथ जोड़ा||
राम-सीता संग विवाह बंधन में बंध गए राम के तीनों भाई|
खुश हुएं सारे नगर वासी जब अयोध्या में चारों बारातें आई||
जब राम के राज्याभिषेक का विचार आया राजा दशरथ के मन में|
तब दासी मंथरा के भड़काने की वजह से कैकई चली गई कोपभवन में||
कैकई ने दशरथ को उसने दिया हुआ वचन याद दिलाया|
वचन की आड़ में भरत को राजपाट और राम को चोदा वर्ष वनवास भिजवाया||
राम लखन संग सिया का जब हो गया वनवास गमन|
शोकाकुल हो गया था तब अयोध्या संग पूरा राजभवन||
राजा दशरथ को मिला था श्रवण के पिता से एक श्राप|
उस श्राप के चलते पुत्र वियोग में तड़पते हुए खो बैठा अपने प्राण वह बाप||
जब भरत को अपनी मां की इस करतूत का पता चला|
तब माता पर क्रोध कर वह अपने राम को खोजने निकला||
भरत को कुटी की ओर आते देख लखन भैया को आया क्रोध|
पर श्रीराम ने उन्हें शांत कराया देकर बंधुप्रेम का बोध||
भरत ने आकर प्रभु से की अयोध्या लौटने की विनती|
पर उस विनती को मान न सकें एकवचनी सिया के पति||
भरत फिर ले गया चरण पादुकाएं पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम की|
कहां, "उनके आने तक सिंहासन पर पादुकाएं रख जिम्मेदारी उठाएगा काम की||"
राम-लखन संग सीता पहुंचे पंचवटी आकर|
रहने लगें वहां पर वें अपनी कुटिया बांध कर||
एक दिन गुजर रहीं थी उस दिशा से सूर्पनखा जो थी रावण की बहन|
परम तेजस्वी राम को देख उसने किया कुटिया में आगमन||
राक्षसी सूर्पनखा खो बैठी अपना भान राम के रूप पर मोहित होकर|
क्रोध में अपने भाई के पास जाने लगीं लक्ष्मण से नाक कटाकर||
सूर्पनखा ने आकर रावण को बताया वन में घटित सारा प्रसंग|
वह सब सुन कर क्रोध में लाल हो गया रावण का अंग अंग||
वनवासियों को सबक सिखाने का रावण ने किया विचार|
जल्द से जल्द हाजिर होने का मारीच को भेजा समाचार||
रावण ने कपट का जाल बिछाया|
'कांचन मृग' बनाकर मारीच को भिजवाया||
प्रलोभित किया उस मृग ने सीता माता के मन को|
माता ने फिर प्रभू से कहां, "लेकर आओ उस मृग को"||
भार्या की इच्छा ने विवश कर दिया पुरुषोत्तम प्रभू राम को|
लाने कांचन मृग वह निकले छोड़ के अपने धाम को||
वहां से निकलनेसे पहले प्रभू ने लक्ष्मण भैया को आदेश दिया|
कहां, " मेरे आने तक हे लक्ष्मण, तुम्हारी जिम्मेदारी है सिया"||
जाल बीछा कर फिर मारीच ने प्रभू स्वर से माता को बहला दिया|
सून कर सिया नें चीख प्रभू की, लक्ष्मण को भिजवाया||
सुरक्षा हेतू माता की लखन ने, 'लक्ष्मण रेखा' को चारों ओर खींच दिया|
इस रेखा को पार न करने का, माता से अनुरोध किया||
लक्ष्मण को वहां से जाते हुए, रावण ने जब देखा|
छल का आरंभ करके उसने साधू भेस धारण किया अनोखा||
बोला,"माते, भिक्षाम् देही साधक आया द्वार"|
वह सून सीता भिक्षा लेकर, आई रेखा के पार||
रावण ने सीता का हाथ पकड कर, असली रूप धारण किया|
पुष्पक विमान से निकला लंका, संग लेकर के राम की सिया||
माता ने पहचान दुष्ट को, पुकारा " जय श्री राम"|
बोली, " रावण तू चुकाएगा इस दुष्कर्म का दाम"||
अपनी बहन का बदला लेने दशानन सीता को हर लाया|
जगत् जननी माता को हर के,अपने काल को उसने निमंत्रित किया||
इधर कुटिया लौटने पर राम लखन ने सिया को कहीं ना पाया|
सिया की खोज करते हुए हर दिशा में आवाज लगाया||
जब जटायु ने देखा रावण को जाते सीता को लेकर|
रावण से युद्ध पुकारा उन्होंने स्वयं वहां पर जाकर||
रावण ने फिर किया प्रहार जटायु के पंखों पर|
वीर जटायु गिरते गिरते पहुंच गए धरती पर||
अपने आभूषण धरती पर जब फेंकने लग गई सिया|
उन आभूषणों को वहां मौजूद वानरों ने देख लिया||
चलते चलते राम लखन को दिख गए मूर्छित जटायु बीच राह में|
उन्होंने बताया सीता माता को रावण ले गया दक्षिण दिशा में||
रास्ते में मिला उन्हें एक राक्षस कबंध था जिसका नाम|
उसने बताया श्रीराम को माता शबरी का धाम||
शबरी से मिलने के लिए श्रीराम ने नहीं की तनिक भी देर|
बड़े ही प्रेम से खिलाएं प्रभु को शबरी ने अपने झूठे बेर||
धन्य हो गई भक्त शबरी अपने प्रभु के दर्शन पाकर|
कहां, "माता को खोजने में मदद मांगना सुग्रीव के पास जाकर||"
सुग्रीव से मिलने 'ऋष्यमूक' पर्वत पहुंचे राम लखन|
निकट आ रही थी वह शुभ घड़ी जब होनेवाला था 'हनुमान मिलन'||
सुग्रीव से मिलने जब बढ़ रहें थें पर्वत की ओर दो पथिक राजकुमार|
देख उन्हें सुग्रीव को लगा, कहीं यह है तो नहीं बाली का कोई गुप्त वार||
फिर कहां सुग्रीव ने,"जाओ पवनतनय हनुमान"|
पता लगाओ तपस्वी वेष में कौन हैं वह दोनों धनुर्धर अनजान ||
वानरराज की आज्ञा से हनुमत ने किया पंडित का भेस धारण|
पहुंचे वह उन पथिकों के पास पूछने आगमन का कारण||
दोनों तेजस्वी युवकों को देखकर मारुती ने किया प्रणाम|
बोले,"कौन हो आप धनुर्धारी? क्या हैं आप दोनों के शुभ नाम?"||
पंडित जी की जिज्ञासा देख थोड़ी शंका आई लखन को|
लखन ने पूछा,"हे महानुभाव,हमारा परिचय जानने की क्यूँ उत्कंठा है आप को?"||
लखन का यह प्रश्न सून कर पहले स्तब्ध हो गए हनुमान|
कहां फिर,"मुझे वानरराज ने भेजा करने आपकी जान पहचान"||
अयोध्या नरेश दशरथ के सूत हैं हम राम-लक्ष्मण हमारे नाम|
वानरराज सुग्रीव से मित्रता करने खोज रहें उनका धाम||
यह बोल सून कर महाबली के नेत्र अश्रूओं से भर आएं|
अपने प्रभू का दर्शन पाकर महाबली धन्य हो गए||
पंडित भेस को करके त्याग अपना असली रूप किया उन्होंने धारण|
पूरी श्रद्धा से स्पर्श किए प्रभू रामचंद्र के शुभ-चरण||
आदरपूर्वक उठा कर भक्त को श्री राम ने गले से लगाया|
भक्त-भगवान के मिलन का शुभ प्रसंग था जब आया||
हनुमत पहुंचे सुग्रीव के पास राम लखन के साथ|
बाली का अंत करने हेतु राम ने सुग्रीव से मिलाया हाथ||
बाली का वध कर राम ने सुग्रीव को संकट से मुक्त कराया|
सीता को खोजने सुग्रीव ने अपने वानरों को चारों ओर भिजवाया||
दक्षिण दिशा में उनको वीर जटायु का भाई मिल गया|
उसने कहां, " सीता मैया को रावण लंका लेकर गया||"
सहन ना हुआ जटायु के भाई को जटायु की मौत का आघात|
जमुवंत ने बताई प्रभु को सीता के लंका में होने की बात||
सब लोग सोच में पड़ गए सिया को खोजने कौन जाएगा लंका?
इस कार्य को हनुमान से बेहतर कोई नहीं कर सकता इसमें ना थी कोई शंका||
प्रभु ने कहां,"यह मुद्रिका कराएगी सिया को तुम्हारी पहचान|"
उस मुद्रिका को लेकर हनुमान ने किया लंका की ओर प्रस्थान||
हनुमान को बीच रास्ते में मैनाक पर्वत मिला|
थोड़ा समय विश्राम करने को उसने हनुमत को बोला||
हनुमत ने कहां,"तब तक यह दास नहीं करेगा आराम|
जब तक पूरा नहीं कर लेता अपने प्रभु का काम||"
हनुमान पहुंचे अशोक वाटिका करके बहुत सी बाधाओं को पार|
पहरा देने खड़ी थी सीता के अगलबगल में राक्षसियां चार||
राक्षसियों के नज़र से बच के हनुमत माता के सामने आया|
अपनी सच्चाई का माता को मुद्रिका रूपी सबूत दिखाया||
अपनी भूख मिटाने हनुमान लगें वाटिका के फल खाने|
रावण ने भेज दिए अपने सैनिक उस उद्दंड वानर को लाने||
हनुमत को सबक सिखाने रावण के कहने पर उसके पूंछ में आग लगाई|
पर ऊंची उड़ान लेकर हनुमत ने पूरी लंका जलाई||
लंका को जलाकर हनुमान पहुंचे वहां जहां थे प्रभु श्रीराम|
बोले,"पता लगाकर सीता मैया का पूर्ण किया आपका काम||"
लंका पहुंचने के लिए पार करना था एक बहुत विशाल सागर|
उस कार्य को पूर्ण करने मदद करने लगें नल नील नामक दो वानर||
बचपन में उन्हें मिला श्राप आया उस दिन वरदान बनकर काम|
फेंकने लगें वह पानी में पत्थर लिख कर प्रभु का नाम||
पानी में फेंके पत्थर तैरने लग गए पानी के ऊपर|
सागर पार किया वानरसेना ने उस 'समुद्र सेतु' पर चलकर||
लंका पहुंचकर रावण के पास अंगद गया राम का शांतिदूत बनकर|
कहां," शांति से सीता माता को लौटा दो वरना युद्ध होगा भयंकर||"
"राम से युद्ध करना मृत्यु को आमंत्रण है" रावण का भाई विभीषण बोला|
पर रावण ने सलाह ना मानकर अहंकार में विभीषण को ही वहां से निकाला||
विभीषण ने जाकर शुद्ध भाव से स्पर्श किए प्रभु रामचंद्र के चरण|
राम ने फिर विभीषण को दिया अपनी छत्रछाया में शरण||
राम - रावण के इस युद्ध की हो गई शुरुआत|
रावण का सैन्य खाता गया हर युद्ध में मात||
रावण के बाकी पुत्रों की मौत के बाद आया युद्ध करने मेघनाथ|
अपने अस्त्र से सांपों से बांध दिए राम लखन के पैर और हाथ||
राम लखन को उस पाश से फिर गरुड़ ने आकर छुड़ाया|
अगले दिन के युद्ध के लिए सबने अपने आप को तैयार किया||
अगले दिन इंद्रजीत के वार से लक्ष्मण भैया धरती पर गिर गए|
उनके इलाज के लिए हनुमत लंका से वैद्य को ले आएं||
वैद्य ने कहां,"सिर्फ़ संजीवनी बूटी से बचा सकतें है लखन की जान|"
संजीवनी बूटी लाने निकले प्रभु को नमन कर हनुमान||"
बीच राह में एक मुनि ने हनुमत को बोला," कर लो थोड़ा स्नान एवम विश्राम|"
असल में वह मुनि नहीं, एक राक्षस था जो करने आया था अपना काम||"
वहां के तालाब की एक मगरमच्छ हनुमत की वजह से श्रापमुक्त हो गई|
उस अप्सरा ने हनुमत को मुनि की असली पहचान बताई||
पर्वत पर पहुंच कर हनुमान को 'संजीवनी' बूटी कौनसी है वह समझ ना आया|
समय के अभाव में पवनपुत्र ने पूरा पर्वत उठाया||
पर्वत उठा के लंका की ओर निकल पड़े प्रभु के दास|
कोई राक्षस पर्वत उठा कर ले जा रहा है ऐसा भरत को हुआ आभास||
भरत ने झट से बाण मारुति की ओर चलाया|
बाण लगते ही मारुति, "श्रीराम" कह के चिल्लाया||
यह राक्षस नहीं, राम का कोई भक्त है भरत को पता चल गया|
हनुमत ने फिर भरत को सारा घटित प्रसंग बताया||
यहां हनुमत की राह देख रहें थें लंका में सब जन|
तभी हो गया हनुमत का पर्वत के संग आगमन||
संजीवनी बूटी से लखन का वैद्य ने इलाज किया|
अगले दिन फिर सेना ने रावण की सेना को टक्कर दिया||
लखन पहुंचा उस गुफ़ा में जहां मेघनाथ कर रहा था देवी को प्रसन्न|
दोनों के बीच युद्ध हुआ और मेघनाथ के अंत का कार्य हुआ संपन्न||
रावण ने अगले दिन भेजा अपना कुंभकर्ण नामक भाई|
बड़ी ही आसानी से वनरसेना की कुंभकर्ण ने की पिटाई||
पर प्रभु राम के सामने तो कुंभकर्ण भी बच ना पाया|
फिर राम से युद्ध करने स्वयं दशानन आया||
राम - रावण के बीच युद्ध हुआ महाभयंकर|
राम के किसी प्रहार का रावण पे नहीं हो रहा था असर||
रावण को मारने की विभीषण बताने लगा कल्पना|
"रावण का अंत करने प्रभु उसकी नाभि पर प्रहार करना||"
नाभि पर बाण लगते ही रावण धरा पर गिर गया|
अंतिम समय में उसने पुरुषोत्तम राम को नमन किया||
रावण की मौत के बाद किया राज्याभिषेक विभीषण का|
अब सब को इंतजार था सीता माता आएगी उस क्षण का||
विजयी होकर रामचंद्र फिर सिया के पास आए|
अशोकवाटिका से सिया को वह अपने साथ ले गए||
माता सीता के दर्शन के लिए व्याकुल थी समग्र वानरसेना|
अपनी सेना को दर्शन देने माता को पड़ा पैदल आना||
प्रभू राम ने कहां," सीता को देनी होगी अपने सतित्व की अग्नीपरिक्षा "|
यह बोल सून कर बदल गया वहा मौजुद सब के मुख का नक्षा||
क्रोध में आकर लखन बोले, "भैया यह कार्य है पूर्णत: अनुचित|
अपने पावित्र्य को सीता मैय्या क्यूँ करेगी साबित?||
असल में वह नहीं थी माता बस थी उनकी परछाई|
पर इस सत्य से अवगत नहीं थे उस क्षण लक्ष्मण भाई||
प्रभू के आज्ञा का पालन करते सीता ने किया अग्निदेव का आवाहन |
बोली," हे देव इस क्षण मेरा हो जाए दहन अगर मेरा सतित्व नहीं है पावन "||
उसी क्षण उस अग्नी में जलकर सिया की राख हो गई परछाई|
फिर अग्निदेवता संग सबके समक्ष असली सीता आई||
माता सीता के सतित्व का अग्निदेवता ने प्रमाण दिया|
अग्नीपरिक्षा सफल होने पर सब ने राम-सीता का जयजयकार किया||
अपने पावित्र्य को साबित किया सीता ने अग्नीपरिक्षा देकर|
अयोध्या की ओर फिर चल पडे सब लोग माता सीता को लेकर||
अयोध्या में सभी प्रजा जनों ने सारे लोगों का स्वागत किया|
और एक दिन प्रभु को सीता के रावण के पास होने से अवगत किया||
अपने ऊपर लगाएं इस दोष से महल को छोड़ कर निकली राम की सिया|
महर्षि वाल्मीकि ने जनकनंदिनी को अपने आश्रम में आश्रय दिया||
सीता की जिंदगी बीत रहीं थी घोर परिश्रम में|
रघुकुल के दो कुमारों ने जनम लिया उसी आश्रम में||
उन दोनों बालकों में से एक को लव और एक को कुश नाम दे दिया|
वाल्मीकि ऋषि ने उन दोनों को सारी विद्याओं में प्रवीण बनाया||
वाल्मीकि ऋषि ने बालकों को 'रामायण' का भी पाठ पढ़ाया|
पुरुषोत्तम प्रभु राम और सीता मैया के बारे में बताया||
यहां अयोध्या में हो रहीं थी अश्वमेघ यज्ञ की तैयारी|
मूरत रूप में प्रभु के पास बैठी थी जनकदुलारी||
नियमानुसार जो भी इस यज्ञ के घोड़े को पकड़ेगा|
उस व्यक्ति को स्वयं श्रीराम के साथ युद्ध करना पड़ेगा||
इस यज्ञ के घोड़े को लव-कुश ने कैद किया|
उन दोनों से युद्ध करने की दे दी रघुकुल को चुनौतियां||
बालवीरों ने अपने साहस से अयोध्या के सारे पराक्रमी योद्धाओं को हराया|
किंतु पवनपुत्र हनुमान ने उन दोनों दिव्य बालकों को पहचान लिया||
अंत में स्वयं श्रीराम युद्ध भूमि पर युद्ध करने आएं|
बालकों के पराक्रम को देख कर आश्चर्यचकित रह गए||
सिया को ख़बर मिली बालकों ने युद्ध किया अपने पिता के संग|
"श्रीराम ही उनके पिता है!" यह सीता के मुख से सुन कर दोनों रह गए दंग||
लव कुश को गुरु ने सिखाया हुआ रामायण का पाठ याद आया|
अयोध्या में जाकर उन्होंने सभी को वह सुनाया||
तेजस्वी बालकों के मुख से रामायण सुन कर सभी जन मंत्रमुग्ध हुए|
साक्षात श्रीराम के समक्ष दरबार में रामायण सुनाने बुलाए गए||
उनके मधुर वाणी से रामायण सुन कर सभी को हुआ हर्ष|
तो बीच बीच में संवेदनशील बोल हृदय को कर गए स्पर्श||
सीता का कठिन परिश्रम सुन कर वहां मौजूद सभी को हुआ खेद|
अंत में ज्ञात हो गया लव - कुश का रामपुत्र होने का भेद||
अपने कुमारों को देख कर प्रभु के नेत्रों से अश्रु आएं|
क्या सबूत है इनके रामपुत्र होने का प्रजा ने सवाल उठाएं||
फिर एक बार कर सतीत्व का अपमान सीता को राजमहल बुलवाया|
अपनी पवित्रता का सबूत उनसे सबके सामने मांगा गया||
सीता ने कहां,"हे, धरती माता अगर मैं पवित्र हूं तो ले जाओ मुझे अपने साथ|"
यह सुन माता प्रगट हुई और ले गई सीता को लेकर अपने हाथ में उसका हाथ||
अयोध्यावासियों को लगने लगीं अपने सीता के संग किए कर्मों की लाज|
कुछ दिनों बाद श्री राम भी चले गए सौंप कर पुत्रों को राज्य का काज||
रामायण की कहानी का यहीं पे हुआ अस्त|
प्रभु राम-लक्ष्मण,माता सीता और हनुमान को नमन करता संसार समस्त||
रामायण को अपने शब्दों की माला में एकत्रित करने का 'धनश्री' ने किया काम|
कोई भूल हो गई तो क्षमा करना हे पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम||
|| सियावर रामचंद्र की जय ||
© विचारसत्त्व
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